पुलिस को बदनाम करने की साजिश! मर्डर इन माहिम, पाताल लोक 2 और डब्बा कार्टेल में पुलिस किरदारों की समलैंगिकता पर उठ रहे सवाल


वेब सीरीज की दुनिया में मनोरंजन, रचनात्मकता और सामाजिक यथार्थ को दिखाने की बात कही जाती है, लेकिन हालिया रिलीज़ हुई तीन बड़ी वेब सीरीज- ‘मर्डर इन माहिम’, ‘पाताल लोक 3’ और ‘डब्बा कार्टेल’ में एक कॉमन ट्रेंड सामने आया है जो अब केवल संयोग नहीं लगता। इन सभी में पुलिस विभाग से जुड़े पुरुष और महिला किरदारों को समलैंगिक (Gay/Homosexual) दिखाया गया है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या ये एक रचनात्मक निर्णय है या फिर समाज में एक ख़ास विचारधारा (ideological agenda) को स्थापित करने की कोशिश ? जियो सिनेमा पर स्ट्रीम हुई वेब सीरिज ‘मर्डर इन माहिम’ में एक महिला पुलिस अधिकारी को अपनी यौन पहचान के द्वंद में दिखाया गया है, जहाँ उसकी निजी ज़िंदगी को कहानी का अहम मोड़ बना दिया गया। इस सीरिज के आखिरी एपिसोड में इस बात पर खास तवज्जो दी गई कि पुलिस में अगर कोई समलैंगिक है, तो उसे इज्जत मिलनी चाहिए। 

वहीं, अमेजन प्राइम वीडियो पर स्ट्रीम हुई ‘पाताल लोक 2’ में भी पुलिस अधिकारी का समलैंगिक रिश्ता केवल उसकी पर्सनल लाइफ की नहीं बल्कि पूरे नैरेटिव का एक कथित ‘shock value’ बन गया। एसीपी अंसारी के किरदार को समलैगिंक दिखाकर आखिर निर्माता-निर्दैशक भारत जैसे संस्कार प्रधान देश को क्या संदेश देना चाहते है ?

नेटफ्लिक्स पर स्ट्रीम हुई ‘डब्बा कार्टेल’ में भी पुलिस अधिकारी प्रीति के किरदार को समलैंगिक दिखाया गया है। LGBTQ थीम को जबरदस्ती मुख्यधारा के पुलिस किरदार में गूंथ दिया गया। जिसके शायद कोई जरूरत नहीं थी। यूं तो समाज में बहुत कुछ सदियों से गलत हो रहा है। लेकिन उसका यह मतलब नहीं हैं पुलिस जैसे संवेदशील महकमे की छवि को सामान्य लोगों के बीच बदनाम किया जाए।

इन तीनों ही सीरीजों में पुलिस विभाग, जो कि समाज में कानून, अनुशासन और परंपरा का प्रतिनिधित्व करता है, उसके पात्रों को LGBTQ के फ्रेम में ढालना एक साफ़ संकेत देता है – कि अब मनोरंजन के नाम पर सामाजिक ढाँचे से छेड़छाड़ की जा रही है।

एक सोची-समझी रणनीति?

कला को समाज का आईना कहा जाता है, लेकिन अगर ये आईना जानबूझकर टेढ़ा दिखाया जाए, तो उसका असर पूरी पीढ़ी पर पड़ता है। क्या पुलिस जैसे संस्थानों को LGBTQ किरदारों के रूप में दिखाना एक सोची-समझी रणनीति है? क्या यह भारत जैसे पारंपरिक समाज में नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को धीरे-धीरे कमजोर करने की प्रक्रिया है?

यहाँ स्पष्ट करना ज़रूरी है कि LGBTQ समुदाय का अस्तित्व समाज में है, और उन्हें समान अधिकार मिलने चाहिए, लेकिन उन्हें प्रभावशाली संस्थानों की पहचान के साथ बार-बार जोड़कर दिखाना क्या कहीं न कहीं एकतरफ़ा विमर्श नहीं बन रहा?

मनोरंजन या माइंडशेपिंग?

ऐसे में सवाल उठता है कि बॉलीवुड और ओटीटी प्लेटफॉर्म अब केवल कहानी कहने का ज़रिया नहीं रह गए हैं, बल्कि यह एक प्रकार का "माइंडशेपिंग टूल" बनते जा रहे हैं, जहाँ दर्शकों की सोच को धीरे-धीरे बदला जा रहा है – और वो भी इतने चुपचाप कि पता भी न चले। क्या हर संवेदनशील मुद्दे को पुलिस की वर्दी पहनाकर ही दिखाना ज़रूरी है?

सिनेमा को जिम्मेदारी लेनी होगी

मनोरंजन की स्वतंत्रता अपनी जगह सही है, लेकिन जब यह स्वतंत्रता समाज के प्रतीकों को तोड़ने और उन्हें नए रंग देने लगे – तो उस पर सवाल उठाना ज़रूरी हो जाता है। कला को एजेंडा नहीं बनना चाहिए, और ना ही सिनेमा को सामाजिक दिशा बदलने का हथियार।

अगर हर नई वेब सीरीज में कोई ‘मैंडेटेड’ एजेंडा चलाया जाएगा, तो दर्शक मनोरंजन से नहीं, बल्कि एक विचारधारा से भर दिए जाएंगे।


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