कहानी में दम नहीं है
कहानी की शुरुआत होती है कुछ रहस्यमय सीन से – जहां बहुत सारे किरदार दिखाए जाते हैं, लेकिन उनकी बातें और एक्टिविटी समझना मुश्किल हो जाता है। शुरू के 2-3 एपिसोड में तो यही पता नहीं चलता कि असल कहानी किसके बारे में है। Storytelling यानी कहानी कहने का तरीका बहुत ही उलझा हुआ है। Scenes बार-बार टाइम के आगे-पीछे जाते हैं (flashback और present), जिससे कन्फ्यूजन और भी बढ़ जाता है। कई बार ऐसा लगता है कि फिल्म अपने रास्ते भटक रही है।
डायरेक्शन और स्क्रीनप्ले में गड़बड़
डायरेक्टर हितेश भाटिया ने सीरीज को स्टाइलिश बनाने की कोशिश तो की, लेकिन content कमजोर था। कैमरा मूवमेंट, रंगों का इस्तेमाल, और साउंड इफेक्ट्स सब कुछ ऐसा लगता है जैसे दिखाने के लिए दिखाया गया हो – कहानी से ज्यादा ध्यान लुक्स पर दिया गया है। स्क्रीनप्ले यानि कहानी का फ्लो बहुत स्लो है। हर एपिसोड में कुछ खास होता नहीं है, और अगर होता भी है तो उसे समझने के लिए बहुत धैर्य चाहिए। सीरिज में प्रीति और शाहिदा का ट्रेक आपको बोर करेगा है। दोनों को समलैगिक दिखाया गया है। जिसकी शायद जरूरत भी नहीं थी।
एक्टिंग - मिली-जुली पर असरदार नहीं
सीरीज की सबसे बड़ी उम्मीद थी इसके female lead characters पांच औरतें जिनके इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। लेकिन अफसोस, इन किरदारों को अच्छी तरह से लिखा ही नहीं गया। कुछ एक्टर्स ने अच्छा काम किया है, लेकिन स्क्रिप्ट कमजोर होने की वजह से उनका टैलेंट निखर नहीं पाया। कोई भी कैरेक्टर ऐसा नहीं है जिससे दर्शक जुड़ सके या जिसकी journey इमोशनल लगे।
शबाना आजमी और गजराज राव ने अपने किरदारों में जान डालने की कोशिश की है। लेकिन दिशाहीन स्क्रीनप्ले की वजह से दोनों का किरदार कोई खास असर नहीं छोड़ता। शलिनी पांडे ने इस सीरिज में एक्टिंग करने के लिए हामी क्यों भरी, यह समझ से परे है। उनका कैरेक्टर डेवलप ही नहीं किया गया। बाकी किरदार भी बेअसर साबित हुए है। खासतौर पर माला का किरदार जब-जब स्क्रीन पर आता है, तो वह आपको इरिटेट करेगा। माला और वरूणा जब-जब आपस में बात करेंगे, आपको चिढ़ होगी।
म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर
जहां कहानी दम तोड़ रही हो, वहां म्यूजिक भी बहुत कुछ नहीं कर पाता। बैकग्राउंड स्कोर थोड़ा अलग जरूर है, लेकिन वो कहानी में जान डालने के बजाय और अजीब माहौल बना देता है। कई बार तो साउंड इतना तेज या बेमतलब होता है कि सीन से ध्यान हट जाता है।
ज्यादा स्टाइल, कम सब्सटेंस
"Dabba Cartel" देखने के बाद लगता है कि ये सीरीज दिखने में जितनी स्टाइलिश है, अंदर से उतनी ही खोखली है। यहां substance यानी असली कंटेंट की कमी है। हर चीज को जबरदस्ती mysterious और artistic बनाने की कोशिश की गई है – लेकिन कहानी, इमोशन और किरदारों की मजबूती के बिना यह सब फीका लगता है।
उम्मीदों पर पानी फिर गया
Netflix जैसी बड़ी प्लेटफॉर्म पर जब कोई नई क्राइम-ड्रामा सीरीज आती है, तो दर्शक उम्मीद करते हैं कि उन्हें दमदार कहानी, अच्छे डायलॉग्स और पकड़ बनाने वाला निर्देशन मिलेगा। लेकिन Dabba Cartel इन सभी उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पाई।
अगर आप एक अच्छी क्राइम थ्रिलर की तलाश में हैं, तो "Dabba Cartel" आपके समय की बर्बादी हो सकती है। इसकी सबसे बड़ी कमजोरी है – उलझी हुई कहानी, कमजोर स्क्रिप्ट, और धीमी रफ्तार। ये सीरीज ज़रूरत से ज्यादा आर्ट बनाने के चक्कर में अपने मकसद से भटक गई। India4Cinema की डब्बा कार्टेल को देता 1.5/5 स्टार. वो भी सिर्फ इसलिए क्योंकि आइडिया नया था, लेकिन execution पूरी तरह फेल रहा।